Sunday, April 25, 2010

aasaram bapu, swami nityanand


                        संत के लिए सब कुछ जायज है!     

                              


द्वारा सम्पादित:- अनिल कुमार 

शायद भक्तों ने उन्हें माफ कर दिया है। मीडिया भी उन पर न अब कुछ दिखा रहा है, न छाप। विरोधी समझौता कर चुके हैं। जनता ने उनके संत होने के रूतबे को बरकरार रखा है। आस्था जीत गई। अपराध और अपराधी विजयपर्व मना रहे हैं। बावजूद इसके, पता नहीं, शासन से लेकर प्रशासन, जनता से लेकर बुद्धिजीवि वर्ग तक सभी यह क्यों कहते हैं कि सच के साथ चलो। सच बोलो। सच लिखो। सच में विश्वास करो।
मैं यहां बात कर रहा हूं, परमपूजनीय कथावाचक संत आसाराम बापू की। और स्वामी नित्यानंद की जो आज भी अखबारों की सर्खियो में है 
परमपूजनीय कथावाचक संत आसाराम बापू  विरोध और विवाद के चलते वे अपनी छवि में आज भी उतने ही साफ और सफेद नजर आते हैं, जितना की अपने कपड़ों में। चेहरे या माथे पर कहीं कोई अपराध या अपराधबोध की लकीरें नहीं। कहीं तिरस्कार का भव नहीं। आज भी वे कथा कह रहे हैं और भक्त उनकी कथा में झूम-नाच रहे हैं। सब तरफ आनंद है।
दरअसल, वह संत हैं। साक्षात ईश्वर का दूसरा अवतार। भक्तों में प्रसिद्ध हैं। भला जो संत है, ईश्वर का दूसरा अवतार है, भक्तों में प्रसिद्ध है, उसकी छवि कैसी मटमैली हो सकती है? कभी नहीं। भला कोई कैसे अपने ईश्वर पर दुश्चरित्र होने का इल्जाम लगा सकता है? यकीनन भक्तों की अंध-भक्ति पर मेरा कुर्बान हो जाने को जी चाहता है। संत आसाराम बापू जब भी किसी शहर मै जाते हैं । बापू के भक्त बापू के प्रचार-प्रसार में अति-व्यस्त रहतो हैं । शहर के चौराहों पर बापू के बड़-बड़े होर्डिंग लगे होते हैं । बापू हाथ जोड़े नजर आते हैं । बापू आर्शिवाद देते नज़र आते हैं । बापू मुस्कुराते नज़र आते हैं । बापू को देखकर यह लग ही नहीं लगता की कि ये वहीं बापू हैं, जिन्हें मासूम बच्चों की हत्या और यौन-उत्पीड़िन के आरोपों में कई दिनों तक मीडिया और जन के विरोध का सामना करना पड़ा था। हमारा-आपका अपराध अपराध है, लेकिन संतों का अपराध अपराध नहीं। बाकई कमाल है।
बापू पर लगे इल्जाम बहुत गंभीर थे। उन पर अगर विस्तार और गहनता से जांच-पड़ताल होती, तो काफी सारी चीजें बाहर निकलकर आ सकती थीं। मगर एक हद के बाद मामला दब गया या दबा दिया गया। क्योंकि यह एक मशहूर संत से जुड़ा मामला था। संत अपराधी हो, भला भक्ति, भक्त और आस्था कैसे स्वीकार कर सकती है? संत संत ही रहेगा। पाकसाफ। पवित्र। दुखहंतः।
यह सब मैंने एक टी वी चैनल पर ही देखा था। एक पीड़ित लड़की कह-बता रही थी कि बापू और उनके बेटे ने कैसे-कैसे उसके साथ यौन-दुराचार किया। कई दिनों तक उक्त चैनल ने अपनी प्रसिधी बढ़ाने के लिए उस लड़की के 'कहे' को भुनाया। मगर उसमें कितना सच था और कितना झूठ, इसे जानने-समझने की जरूरत न उस चैनल ने समझी, न ही किसी और ने। बात आई गई हो गई। फिर सब कुछ सामान्य हो चला। अब न वाद है। न विवाद है। न इल्जाम है। न विरोध है। न अपराध है। न अपराधी।
चाहे जो हो, मगर बापू पर इल्जाम तो लगे ही थे। छवि तो धूमिल हुई ही थी। मगर आज उन्हें या उनके चेहरे पर कोई अपराधबोध नजर नहीं आता। पता नहीं हमारे देश में कानून कमजोर को दबाने के लिए ही क्यों बनाए जाते हैं? सिगरेट पीने पर पाबंदी लग रही है मगर...। बड़े-बड़े अपराधी उसमें से साफ निकल जाते हैं।
मैं कुछ गलत नहीं कह रहा धर्म और अंध-आस्था ने हमें न केवल अंधा कर दिया है, बल्कि नपुंसक भी बन दिया है। कितनी ताज्जुब की बात है कि आसाराम बापू पर इतने गंभीर आरोप लगने के बाद भी, भक्त उनकी भक्ति में पागल हैं। यह सब देखकर तो मुझे यही लगता है कि २१वीं सदी का मनुष्य १७वीं-१८वीं सदी से कहीं अधिक गंवार और बेअक्ल है ।
और अब देखते हैं की स्वामी नित्यानंद क्या रास्ता अपनाते हैं और उनके भक्त उन पर कितना विश्वास करते हैं। 
जिसके बारे मैं कई टी वि चेनल उनके करतूत दिखा चुके हैं । और you tube पर तो उनके क्लिप्स देखे नहीं ख़त्म नहीं होते 

पोस्टेड वाई anil.manali@gmail.com

अगले जनम मोहे बिटिया.....


                पुरुषों पर भारी पड़ती है नारी
     
                            
 चंद वाक़यात लिखने जा रहा  हूँ...

जो नारी जीवन के एक दुःख भरे पहलू से ताल्लुक़ रखते हैं....

हमारे मुल्क में ये प्रथा तो है ही,कि, ब्याह के बाद लडकी अपने माता-पिता का घर छोड़ 'पती'के घर या ससुराल में रहने जाती है...बचपन से उसपे संस्कार किए जाते हैं,कि, अब वही घर उसका है, उसकी अर्थी वहीँ से उठनी चाहिए..क्या 'वो घर 'उसका' होता है? क़ानूनन हो भी, लेकिन भावनात्मक तौर से, उसे ऐसा महसूस होता है? एक कोमल मानवी मन के पौधे को उसकी ज़मीन से उखाड़ किसी अन्य आँगन में लगाया जाता है...और अपेक्षा रहती है,लडकी के घर में आते ही, उसे अपने पीहर में मिले संस्कार या तौर तरीक़े भुला देने चाहियें..!
क्या ऐसा मुमकिन हो सकता है?
 
इस तरह एक नारी अपने जीवन मैं कितना परिवर्तन एक साथ देखती हैं


आज नारी समाज जागरूक है। फिर भी हम बदलाब को देख नहीं पा रहे ।
तो जनाब कुछ गड़बड़ जरूर है। 


अगर बदलाव आ रहा है तो दिखता क्यों नहीं! यह केवल मेरा दृष्टि-दोष ही नहीं! जो मैं बदलाव को देख नहीं पा रहा हूँ । नारी की सामाजिक स्थिति पर लेखकों द्वारा रात-दिन लिख-लिखकर पन्ने काले करते रहना, और कभी नारी द्वारा मौके-बेमौके आंदोलन की धींगा-मुश्ती कर लेना, इससे भी बात न बने तो टेलीविजन पर कथित आधुनिक नारी को दिखाकर 'नारी की सामाजिक स्थिति में बदलाव आ रहा है' की ख़ुशफ़हमी दिमागों में पालकर खुद-ब-खुद प्रसन्न होते रहना। शायद यही बदलाव है। 


इधर स्त्री-विमर्श वाले तो नारी को देह से विरक्त कर देखना-समझना ही नहीं चाहते। वे इसी बात से खुश और संतुष्ट हैं कि नारी की देह चर्चा में है।

इस मत-विमत में थोड़ी देर के लिए मैं नारी को देह से अलग कर उस नारी पर बात करना चाहता हूं जो कथित बदलाव से दूर ही नहीं, बहुत दूर है। सदियां बीत जाने के बावजूद मुझे भारतीय नारी आज भी दबी-कुचली, सहमी और पितृसत्तात्मक्ता की गुलाम नज़र आती है। उसका बजूद आज भी पिता, पति और सामाजिक परंपराओं की चारदीवारी में ही कैद है। पहले पिता का डंडा। फिर पति की हिटलरशाही ।



और इसके बाद समाज की कही-अनकही लानछने ।


 इन सब से लुट-पीटकर उसका एक यातना गृह और है, वह है, नारी द्वारा नारी को ही दबाने-सताने की  कोशिशें। बेशक, नारी पुरुष-सत्ता को नारी पर आत्याचार के लिए खूब कोस सकते हैं किसने रोका है। लेकिन नारी उस आत्याचार पर प्रायः चुप्पी लगा जाते हैं जो नारी द्वारा नारी पर ही किया-करवाया जाता है। हां, अगर कोई नारी अपने हित में आवाज़ उठती भी है तो यह कहकर उसे बैठा दिया जाता है कि अरे यह तुम क्या कह रही हो! नारी होकर नारी का अपमान करना चाहती हो,
शर्म आनी चाहिए तुम्हें।

नारी द्वारा नारी का उत्पीड़न आज हर घर, हर समाज, हर जाति की चिर-परिचित कहानी है। मगर जान-बूझकर नारी-समाज उससे परीचित नहीं होना चाहती । और पुरुष समाज को बदनाम करती है ।



जाने क्यों आवाज़ उठाने से डरती है? घर में मां की सख्ती। ससुराल में सास का कहर। समाज में एक-दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र। आज टीवी पर आने वाले सीरियल इसी 'तानाशाह नारी' को दिखा-दिखाकर पैसा भी बना रहे हैंऔर नारी समाज इन्ही सिरिअलो में अपना वक़्त बर्बाद कर रही है ।


कैसी बिडंवना है इस समाज की कि यह नारी को नारी के खिलाफ तो आराम से देख-सुन सकता है लेकिन समलैंगिक संबंधों की जहां बात आती है इसे अपनी सभ्यता-संस्कृति खतरे में पड़ती नज़र आने लगती है। समलैंगिक संबंधों का नाम सुनते ही इसे सांप-सा सूंघ जाता है। दीपा मेहता की (water)  फिल्म पर मचा बवाल याद होगा ही आपको।

नारी पर चल रहे तमाम बदलावों के मद्देनज़र नारी के खिलाफ नारी के उत्पीड़न में अपने समाज और परिवारों में अभी तक कोई बदलाव नहीं आ सका है। मुझे इस बात की भी बेहद तकलीफ है कि अभी तक किसी भी महिला-ब्लॉगर ने इस मुद्दे पर न अपनी बात को रखा है और न ही किसी बहस का आयोजन किया है। जबकि यह महिला  से ही से जुडा गंभीर मामला है।



पुरुष को गरियाना बेहद सरल है लेकिन एक दफा नारी को अपने उन आत्याचारों पर भी निगाह डालनी चाहिए जो वे अपनों के ही खिलाफ रचते या देखते-सुनते रहते हैं।


आज अगर महिला गाँव या किसी समूह में इकट्ठे हो तो हैं तो किसी न किसी बात में, कहीं न कहीं दूसरी महिला के खिलाफ ज़हर उगलने में सकुचाती नहीं। बुराई करने में उन्हें आनंद आता है। लेकिन इस आनंद को कभी न कभी बंद करना ही पड़ेगा। तब ही मुझे लगेगा कि बदलाव की असल बात तो अब शुरू हुई है।

देखते हैं, कितनी नारियां इस आत्याचार पर कितना और कहां तक पहल कर पाती हैं!



मुझे इस ब्लॉग में भी आपके राय का बेसब्री से इंतजार रहेगा 


हलांकि ये संबाद है फिर भी आप से इस बिषय पर चर्चा करना चाहूँगा  


आप अपने राय निम्न पते पर मेल करें 
या आप फ़ोन पर भी इस विषय पर चर्चा कर सकते हैं 


anil.manali@gmail.com
9816159581,

Saturday, April 24, 2010

दोनों बीवी राजी, क्या करेगा काजी


दोनों बीवी राजी, क्या करेगा काजी?
द्वारा सम्पादित : अनिल कुमार

दुर्भाग्य है, इस देश का और इस देश की स्त्रियों का कि आज 21वीं सदी में भी कानून उसी प्रकार से काम कर रहा है, जैसे कि 17वीं और 18वीं शताब्दी में करता था। हम सबने कहावत पढी और सुनी है कि "मियां बीवी राजी, क्या करेगा काजी?" लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में सुनाये गये एक निर्णय की गहराई में जाने पर जो बात निकलकर सामने आयी है, उसके आधार पर मैं एक नयी कहावत का सृजन करने का दुस्सहस कर रहा हूँ- "दोनों बीवी राजी, क्या करेगा काजी (कानून)?" 
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ठक ऐसा फैसला सुनाया है, जिसका दूरगामी परिणाम क्या होगा? यह अभी कहना जल्दबाजी होगा, लेकिन चूंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध किसी भी अदालत में अपील नहीं की जा सकती। इसलिये प्रत्येक भारतीय के लिये मामनीय सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को मानना संविधान द्वारा निर्धारित बाध्यता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है कि "किसी पुरुष की मृत्यु के बाद यदि उसकी पहली पत्नी को कोई आपत्ति नहीं हो तो उसकी दूसरी पत्नी को भी सरकारी नौकरी में अनुकंपा नियुक्ति पाने का कानूनी अधिकार है।" जबकि हम सब जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के ठीक विपरीत हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों के तहत एक विवाहित पुरुष, एक समय में केवल एक ही पत्नी रख सकता है। एक विवाहित स्त्री पर भी यही बात लागू होती है।
विवाहित होते हुए दूसरी शादी करना भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी की धारा 494 और हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 17 के तहत अपराध माना गया है। जिसमें सात साल तक के कड़े कारावास की सजा दिये जाने की व्यवस्था है। इन दोनों कानूनों के विद्यमान होने के बावजूद भी सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि पहली पत्नी की अनुमति से दूसरी पत्नी को मृतक पति के स्थान पर अनुकम्पा नियुक्ति दी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय समाज और कानून को ऐसे रास्ते पर ले जाता हुआ प्रतीत हो रहा है, जिसका अन्त न जाने कितने भयावह परिणामों को जन्म दे सकता है! कल को सुप्रीम कोर्ट यह भी कह सकता है कि यदि पहली पत्नी को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है, तो कोई पुरुष दूसरी पत्नी रख सकता है। बल्कि देखा जाये तो यही निर्णय दूसरी पत्नी को मान्यता प्रदान कर चुका है। केवल अन्तर इतना सा है कि दूसरी पत्नी को सुप्रीम कोर्ट ने जो मान्यता प्रदान की है, वह पति के मरने के बाद प्रदान की है। यद्यपि मुद्दा यह नहीं है, मान्यता कब प्रदान की है, बल्कि मुद्दा यह है कि पहली विवाहिता पत्नी के होते हुए, जब एक पुरुष को दूसरी पत्नी रखने का कानून में प्रावधान है ही नहीं तो फिर, दूसरी पत्नी को किसी भी सूरत में मृतक पति की वारिस कहलाने का कानून द्वारा अधिकार कैसे प्रदान किया जा सकता है? परन्तु, चूंकि सुप्रीम कोर्ट तो सुप्रीम कोर्ट है! आदेश दे दिया तो दे दिया, कोई क्या कर सकता है? अब दूसरी पत्नियों को सरकारी सेवा में रहे मृतक पतियों के स्थान पर नौकरी पाने के लिये केवल, पहली पत्नी की अनुमति लेनी होगी और मिल जायेगी, अनुकम्पा के आधार पर सरकारी नौकरी। इस निर्णय के प्रकाश में मृतक के स्थान पर अनुकम्पा नियुक्ति दिये जाने के नियम पर भी विचार करने की आवश्यकता है।
मैं जितना समझता हँ, किसी लोकसेवक की असामयिक मृत्यु हो जाने पर, उसके परिवार को सहारा देने के लिये सहानुभूति के आधार पर, मृतक के कानूनी वारिसों को अनुकम्पा दी जाती है। सम्भवतः यह प्रावधान पूरी तरह से मानवीय आधार कोदृष्टिगत रखते हुए बनाया गया है। जिस सरकारी विभाग में एक व्यक्ति अपना पूरा जीवन सेवा करता है, उस विभाग की भी उस व्यक्ति के परिवार के प्रति कुछ मानवीय जिम्मेदारी होनी चाहिये, यह मानकर इस जिम्मेदारी को अनुकम्पा प्रदान करके पूरी करने का प्रयास किया जाता रहा है। लेकिन इसके लिये केवल कानूनी वारिसों को ही परिवार के सदस्य माना जाता है, जिनमें मृतक की पत्नी, पुत्र, पुत्री, पोत्र, विशेष परिस्थितियों में पति भी अनुकम्पा नियुक्ति के हकदार हो सकते हैं। इस माले में तो सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसी महिला को अनुकम्पा नियुक्ति प्रदान करने का आदेश दिया है, जो मृतक के जिन्दा रहने तक, मृतक के परिवार की कानूनी सदस्य भी नहीं थी। ऐसे में मृतक के परिवार को सम्बल प्रदान करने के लिये ऐसी पत्नी को अनुकम्पा के आधार पर नौकरी प्रदान करने से मृतक के परिवार को क्या हासिल होगा, यह भी विचारणीय विषय है? एक ऐसी महिला को, किसी ऐसे मृतक पुरुष की मृत्यु के बाद, जो उसका वैध पति नहीं था, को उस मृतक की पत्नी का दर्जा देना, जिसने एक वैध विवाहिता पत्नी के अधिकारों पर बलात अतिक्रमण किया हो कहाँ का न्याय है? समझ से परे है? इस निर्णय में सुप्रीम कार्ट के न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू और न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा की पीठ ने कर्नाटक सरकार की एक अपील को खारिज करते हुए कहा कि जब दोनों पत्नी राजी हो गई हैं तो आप आपत्ति करने वाले कौन होते हैं। यदि एक पत्नी अनुकंपा नियुक्ति चाहती है और दूसरी मुआवजे संबंधी लाभ चाहती है तो आपको क्या परेशानी है? यहाँ पर सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि इसी तर्ज पर कल को यह भी कहा जा सकता है कि जब दो औरतें एक पुरुष से विवाह करने को राजी हैं, तो सरकार होती कौन है, आपत्ति करने वाली? यद्यपि व्यवहार में पहले से भी यही होता आ रहा है।
पुरुष की आदिकाल से एकाधिक स्त्रियों का भोग करने की प्रवृत्ति रही है, जो हमारे देश के कानूनों में भी स्पष्ट रूप से झलकती है। हिन्दू विवाह अधिनियम में साफ लिखा गया है कि यदि एक विवाहित पुरुष द्वारा पहली पत्नी के रहते दूसरा विवाह किया जाता है तो यह कानूनी तौर पर अपराध तो है, लेकिन इस अपराध के खिलाफ पुलिस या सरकार या कोर्ट को स्वयं संज्ञान लेने का कोई अधिकार नहीं है। दूसरा विवाह करने वाला पुरुष तब ही कानून के शिकंजे में आ सकता है, जबकि उसकी पहली विवाहिता पत्नी, उसके (अपने पति के) खिलाफ कानून के समक्ष लिखित में शिकायत लेकर जाये! अन्य कोई शिकायत नहीं कर सकता है और यदि कोई शिकायत करता भी है तो ऐसी शिकायत पर, ऐसे पुरुष के विरुद्ध कानून को हस्तक्षेप करने का कोई हक नहीं है। यही वजह है कि प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र की पहली पत्नी के रहते, धर्मेन्द्र हेमा मालिनी से दूसरा विवाह रचाकर भी न मात्र एक सम्मानित नागरिक का जीवन जी रहे हैं, बल्कि सरेआम कानून को धता बताकर गैर-कानूनी विवाह रचाने के अपराधी होते हुए दोनों ही संसद के सदस्य भी रह चुके हैं। यह सब इसलिये हो सका, क्योंकि धर्मेन्द्र की पहली पत्नी ने कानून के समक्ष इसकी कोई शिकायत नहीं की। और भी अनेक ऐसे ही मामले अनेक सुप्रसिद्ध लोगों के हैं।जिनमें पूर्व मन्त्री राम विलास पासवान, श्रीमती जसकौर मीणा आदि अनेक लोग शामिल हैं। ये तो वे मामले हैं, जिनमें धनवान लोगों या प्रसिद्ध लोगों द्वारा धन के बल पर या अपनी छवि को नुकसान नहीं हो, इस बात की दुहाई देकर या अपने बच्चों के भविष्य की दुहाई देकर, अपनी पहली पत्नी का मुःह बन्द कर दिया जाता है, लेकिन भारत जैसे देश में औरतों की जो दशा है, उसमें ९५ प्रतिशत से अधिक औरतें तो इस हालत में होती ही नहीं कि वे कानून के समक्ष खड़ी होकर, अपने पति के विरुद्ध मुकदमा दायर कर सकें। जिसके पीछे एक ओर तो जहाँ आर्थिक कारण होते हैं, वहीं दूसरी ओर अनेक सामाजिक एवं धार्मिक कारण भी होते हैं। जिनके चलते एक-एक पाई को मोहताज रहने वाली और पति को परमेश्वर मानने वाली पत्नी, कानून के समक्ष गुहार करके अपने पति को कारावास में डलवाने के लिये कदम उठाने से पूर्व 10 बार नहीं, 100 बार सोचती है। पुरुष ने स्त्री की इसी कमजोरी का लाभ उठाकर ऐसा कानून बनाया, जिसमें दूसरे विवाह को कानूनी तौर पर अवैधानिक घोषित करके भी दूसरी पत्नी रखने का प्रावधान कर लिया। अन्यथा पुरुषों को, केवल पुरुष मानकर नहीं, बल्कि एक पुत्री के पिता, एक बहिन के भाई बनकर सोचना चाहिये कि जहाँ पूर्व पति या पूर्व पत्नी के रहते दूसरा विवाह करना कानूनी तौर पर निषिद्ध है और वहाँ इस कानून को तोड़नकर दूसरा विवाह रचाने वाले अपराधी को सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिये? ऐसे अपराधी को सजा देने के लिये कानून में किसी भी प्रकार के किन्तु, परन्तु को जगह क्यों दी गयी है?
यह लेख मियां बीबी राजी तो क्या करेगा काजी  पर लिखी गयी है
आप से अनुरोध है की आप अपनी राय मुझे मेल करे
मुझे आपके मेल का इंतजार रहेगा.


anil.manali@gmail.com

सूर्य ग्रहण


सूर्य ग्रहण : ब्रह्माण्ड का एक अद्भुत रूप
  • अनिल कुमार 9816159581
सूर्य ग्रहण दुनिया के धर्म शास्त्रों में इसका विभिन्न रूपों में अद्भुत वर्णन है। विज्ञान के लिए यह सृष्टि की आयु के चरम तक जानने का एक रहस्यात्मक प्रश्न है। ज्योतिषियों ने इसकी महत्ता का बखान समस्त प्राणियों के जीवन को आधार बनाकर किया है। कुल मिलाकर चंद्र ग्रहण या सूर्य ग्रहण के बारे में जो धारणा और तस्वीर बनकर उभरती है वह मानव जाति के उत्थान और पतन के पटल पर छा जाती है। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण सदियों की नाभिकीय और कुदरत की कलाओं के वह नज़ारे हैं जिनको जानने और समझने के लिए युग के युग निकल गए लेकिन विज्ञान की नज़रें इसके रहस्यों को अभी भी खोज रही हैं और धर्माचार्य या ज्योतिषीय विज्ञान इसमें जो खोज रहा है वह सबके सामने है यानि आध्यात्म, मोक्ष, यश, अपयश और जीवन-मरण की गणनाएं।
जिस 
रोज से पूर्ण सूर्यग्रहण की खबरें मानव जाति के मस्तिष्क में आई हैं इसको लेकर उत्सुकता और अफरा-तफरी अपने चरम पर है। बाइस जुलाई के सूर्य को ग्रहण होता देखने के लिए दुनिया में उत्सुकता रही और जिन क्षेत्रों में इसे पूरी तरह से देखा जाना बताया गया था वहां इसे देखने वाले विज्ञानियों, शोधार्थियों और धर्मचेतना से जुड़े विद्वानों, नर और नारियों ने खास प्रबंध किए। देश और दुनिया की बहती नदियों में नहा कर मोक्ष की तमन्ना देखी गई। सूर्यग्रहण के बाद से ही इसकी आलौकिक घटनाओं और छटाओं पर विशेषज्ञों के विचार और उससे प्रभावित होने वाले जातकों के बारे में जानकारियां दी जा रही हैं। कहते हैं कि ग्रहण जैसी घटना किसी अनहोनी का पूर्वाभास देती है क्योंकि इसके प्रतिफल को जिस प्रकार से प्रकट किया जाता है उसमें मोक्ष की ही चर्चा बार-बार होती है। यह सब मानव जाति के लिए कितना सही और गलत है यह हमेशा से विचार और अनुसंधान का विषय बना हुआ है लेकिन कुदरत का यह आलौकिक दृश्‍य इतना मनोहारी और चमत्कारी होता है कि उसे देखने के लिए दुनिया उमड़ती है यहां तक कि वन्य प्राणियों में भी इसकी हलचल और प्रतिक्रिया सुनाई देती है। खगोलीय विशेषज्ञों के अनुसार अब यह 123 साल बाद दिखाई देगा।

gharelu makkhi


मक्खी: एक विलक्षण कीट
  • अनिल कुमार 9816159581
वह कीट कौन है जो 7.5 मिलीमीटर लंबा, धूसरवर्णी, चित्ताकर्षक और सुंदर भूरी आंखों वाला है? वह है-घरेलू मक्खी। हम लोग इसे हानिकारक कीट मानकर इससे छुटकारा पाने का असफल प्रयास करते हैं। मक्खी अपनी तरह के अन्य प्राणियों से करीब दो मिलीमीटर छोटी होती है और इसके शरीर के पश्च भाग पर पीत वर्ण के धब्बे होते हैं। यह हमारे घरों में सर्वाधिक पाया जाने वाला कीट है।
हम प्रायः यह मानते हैं कि हम मक्खी के बारे में जानते हैं परंतु वास्तव में कोई बिरला ही पूरी तरह इसे जान पाता है! क्या आप ऐसा सोच सकते हैं कि यह अपने मुखाग्र से मादा के सिर के पिछले हिस्से में एक चुंबन अंकित करती है। वहीं से दूसरा साथी मिलन की वास्तविक रति शुरू करता है।
एक मादा मक्खी एक बार में सौ से भी अधिक अंडे देती है और प्रायः उन्हें पशुओं के गोबर या सड़े हुए खाने के टुकड़ों में देती है। इन अंडों से एक दिन या उससे भी कम समय में पीले लारवा तैयार हो जाते हैं, जिन का काम सिर्फ खाना और बढ़ना ही होता है। अनुकूल परिस्थितियां मिलने पर दो सप्ताह में उनका वजन 800 गुना बढ़ जाता है और वे पूर्ण वृद्धि प्राप्त कर लेते हैं। फिर एक सप्ताह बाद वे एक पूर्ण विकसित घरेलू मक्खी बन जाती है।
आस्ट्रेलिया के व्यवहारविद कार्ल वॉन फाइश ने यह हिसाब लगाया कि एक मक्खी कितनी संतान पैदा कर सकती है। अगर कोई बाधा न हो तो एक मक्खी केवल चार पीढि़यों में 1.25 करोड़ संतान उत्पन्न कर सकती है परंतु सौभाग्य से अधिकांश मक्खियां लारवावस्था में ही मृत्यु का शिकार हो जाती हैं, वे या तो सूख जाते हैं या फिर पक्षियों और अन्य शत्रुओं का भोजन बन जाते हैं और इस प्रकार संसार में मक्खियों की संख्या का स्तर समान बना रहता है।
शरद ऋतु में ये मक्खियां पतझड़ में पत्तों की भांति नष्ट होने लगती हैं। अंदर ही अंदर से जर्जर करने वाले रोगों से इन की मृत्यु हो जाती है। यही कारण है कि हम अकसर खिड़कियों और दीवारों पर मरी हुई मक्खियां चिपकी हुई पाते हैं जिनके चारों ओर जीवाणु लिपटे होते हैं। परंतु कुछ मक्खियां ठंडे और अंधेरे स्थानों में शरद काल बिताकर जीवित बची रह जाती है और वसंत ऋतु में उनकी संतति पुनः इस संसार में एक सफल जीवन व्यतीत करती है।

shutdown day


एक दिन कम्प्यूटर के बिना

आदतें कितनी जल्दी गुलाम बना लेती हैं. हालत ये हो गई है कि अब एक दिन के लिए भी कम्प्यूटर (और इंटरनेट) बिल्कुल छोड़ देना लगभग खाना छोड़ने जैसा मुश्किल लगता है. पर मैंने कई बार ऐसा करके देखा है और पाया है कि वो दिन बड़ा बढ़िया गुजरता है. तीन मई को कुछ लोग (डेनिस बाइस्ट्रोव और आशुतोष राजेकर के आह्वान पर) फिर ऐसा करने का बहाना दे रहे है - मौका है शटडाउन दिवस का. चलिए, मेरा कम्प्यूटर तो बंद रहेगा. आप भी कहीं घूम आइए

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