Saturday, April 24, 2010

दोनों बीवी राजी, क्या करेगा काजी


दोनों बीवी राजी, क्या करेगा काजी?
द्वारा सम्पादित : अनिल कुमार

दुर्भाग्य है, इस देश का और इस देश की स्त्रियों का कि आज 21वीं सदी में भी कानून उसी प्रकार से काम कर रहा है, जैसे कि 17वीं और 18वीं शताब्दी में करता था। हम सबने कहावत पढी और सुनी है कि "मियां बीवी राजी, क्या करेगा काजी?" लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में सुनाये गये एक निर्णय की गहराई में जाने पर जो बात निकलकर सामने आयी है, उसके आधार पर मैं एक नयी कहावत का सृजन करने का दुस्सहस कर रहा हूँ- "दोनों बीवी राजी, क्या करेगा काजी (कानून)?" 
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ठक ऐसा फैसला सुनाया है, जिसका दूरगामी परिणाम क्या होगा? यह अभी कहना जल्दबाजी होगा, लेकिन चूंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध किसी भी अदालत में अपील नहीं की जा सकती। इसलिये प्रत्येक भारतीय के लिये मामनीय सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को मानना संविधान द्वारा निर्धारित बाध्यता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है कि "किसी पुरुष की मृत्यु के बाद यदि उसकी पहली पत्नी को कोई आपत्ति नहीं हो तो उसकी दूसरी पत्नी को भी सरकारी नौकरी में अनुकंपा नियुक्ति पाने का कानूनी अधिकार है।" जबकि हम सब जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के ठीक विपरीत हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों के तहत एक विवाहित पुरुष, एक समय में केवल एक ही पत्नी रख सकता है। एक विवाहित स्त्री पर भी यही बात लागू होती है।
विवाहित होते हुए दूसरी शादी करना भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी की धारा 494 और हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 17 के तहत अपराध माना गया है। जिसमें सात साल तक के कड़े कारावास की सजा दिये जाने की व्यवस्था है। इन दोनों कानूनों के विद्यमान होने के बावजूद भी सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि पहली पत्नी की अनुमति से दूसरी पत्नी को मृतक पति के स्थान पर अनुकम्पा नियुक्ति दी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय समाज और कानून को ऐसे रास्ते पर ले जाता हुआ प्रतीत हो रहा है, जिसका अन्त न जाने कितने भयावह परिणामों को जन्म दे सकता है! कल को सुप्रीम कोर्ट यह भी कह सकता है कि यदि पहली पत्नी को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है, तो कोई पुरुष दूसरी पत्नी रख सकता है। बल्कि देखा जाये तो यही निर्णय दूसरी पत्नी को मान्यता प्रदान कर चुका है। केवल अन्तर इतना सा है कि दूसरी पत्नी को सुप्रीम कोर्ट ने जो मान्यता प्रदान की है, वह पति के मरने के बाद प्रदान की है। यद्यपि मुद्दा यह नहीं है, मान्यता कब प्रदान की है, बल्कि मुद्दा यह है कि पहली विवाहिता पत्नी के होते हुए, जब एक पुरुष को दूसरी पत्नी रखने का कानून में प्रावधान है ही नहीं तो फिर, दूसरी पत्नी को किसी भी सूरत में मृतक पति की वारिस कहलाने का कानून द्वारा अधिकार कैसे प्रदान किया जा सकता है? परन्तु, चूंकि सुप्रीम कोर्ट तो सुप्रीम कोर्ट है! आदेश दे दिया तो दे दिया, कोई क्या कर सकता है? अब दूसरी पत्नियों को सरकारी सेवा में रहे मृतक पतियों के स्थान पर नौकरी पाने के लिये केवल, पहली पत्नी की अनुमति लेनी होगी और मिल जायेगी, अनुकम्पा के आधार पर सरकारी नौकरी। इस निर्णय के प्रकाश में मृतक के स्थान पर अनुकम्पा नियुक्ति दिये जाने के नियम पर भी विचार करने की आवश्यकता है।
मैं जितना समझता हँ, किसी लोकसेवक की असामयिक मृत्यु हो जाने पर, उसके परिवार को सहारा देने के लिये सहानुभूति के आधार पर, मृतक के कानूनी वारिसों को अनुकम्पा दी जाती है। सम्भवतः यह प्रावधान पूरी तरह से मानवीय आधार कोदृष्टिगत रखते हुए बनाया गया है। जिस सरकारी विभाग में एक व्यक्ति अपना पूरा जीवन सेवा करता है, उस विभाग की भी उस व्यक्ति के परिवार के प्रति कुछ मानवीय जिम्मेदारी होनी चाहिये, यह मानकर इस जिम्मेदारी को अनुकम्पा प्रदान करके पूरी करने का प्रयास किया जाता रहा है। लेकिन इसके लिये केवल कानूनी वारिसों को ही परिवार के सदस्य माना जाता है, जिनमें मृतक की पत्नी, पुत्र, पुत्री, पोत्र, विशेष परिस्थितियों में पति भी अनुकम्पा नियुक्ति के हकदार हो सकते हैं। इस माले में तो सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसी महिला को अनुकम्पा नियुक्ति प्रदान करने का आदेश दिया है, जो मृतक के जिन्दा रहने तक, मृतक के परिवार की कानूनी सदस्य भी नहीं थी। ऐसे में मृतक के परिवार को सम्बल प्रदान करने के लिये ऐसी पत्नी को अनुकम्पा के आधार पर नौकरी प्रदान करने से मृतक के परिवार को क्या हासिल होगा, यह भी विचारणीय विषय है? एक ऐसी महिला को, किसी ऐसे मृतक पुरुष की मृत्यु के बाद, जो उसका वैध पति नहीं था, को उस मृतक की पत्नी का दर्जा देना, जिसने एक वैध विवाहिता पत्नी के अधिकारों पर बलात अतिक्रमण किया हो कहाँ का न्याय है? समझ से परे है? इस निर्णय में सुप्रीम कार्ट के न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू और न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा की पीठ ने कर्नाटक सरकार की एक अपील को खारिज करते हुए कहा कि जब दोनों पत्नी राजी हो गई हैं तो आप आपत्ति करने वाले कौन होते हैं। यदि एक पत्नी अनुकंपा नियुक्ति चाहती है और दूसरी मुआवजे संबंधी लाभ चाहती है तो आपको क्या परेशानी है? यहाँ पर सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि इसी तर्ज पर कल को यह भी कहा जा सकता है कि जब दो औरतें एक पुरुष से विवाह करने को राजी हैं, तो सरकार होती कौन है, आपत्ति करने वाली? यद्यपि व्यवहार में पहले से भी यही होता आ रहा है।
पुरुष की आदिकाल से एकाधिक स्त्रियों का भोग करने की प्रवृत्ति रही है, जो हमारे देश के कानूनों में भी स्पष्ट रूप से झलकती है। हिन्दू विवाह अधिनियम में साफ लिखा गया है कि यदि एक विवाहित पुरुष द्वारा पहली पत्नी के रहते दूसरा विवाह किया जाता है तो यह कानूनी तौर पर अपराध तो है, लेकिन इस अपराध के खिलाफ पुलिस या सरकार या कोर्ट को स्वयं संज्ञान लेने का कोई अधिकार नहीं है। दूसरा विवाह करने वाला पुरुष तब ही कानून के शिकंजे में आ सकता है, जबकि उसकी पहली विवाहिता पत्नी, उसके (अपने पति के) खिलाफ कानून के समक्ष लिखित में शिकायत लेकर जाये! अन्य कोई शिकायत नहीं कर सकता है और यदि कोई शिकायत करता भी है तो ऐसी शिकायत पर, ऐसे पुरुष के विरुद्ध कानून को हस्तक्षेप करने का कोई हक नहीं है। यही वजह है कि प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र की पहली पत्नी के रहते, धर्मेन्द्र हेमा मालिनी से दूसरा विवाह रचाकर भी न मात्र एक सम्मानित नागरिक का जीवन जी रहे हैं, बल्कि सरेआम कानून को धता बताकर गैर-कानूनी विवाह रचाने के अपराधी होते हुए दोनों ही संसद के सदस्य भी रह चुके हैं। यह सब इसलिये हो सका, क्योंकि धर्मेन्द्र की पहली पत्नी ने कानून के समक्ष इसकी कोई शिकायत नहीं की। और भी अनेक ऐसे ही मामले अनेक सुप्रसिद्ध लोगों के हैं।जिनमें पूर्व मन्त्री राम विलास पासवान, श्रीमती जसकौर मीणा आदि अनेक लोग शामिल हैं। ये तो वे मामले हैं, जिनमें धनवान लोगों या प्रसिद्ध लोगों द्वारा धन के बल पर या अपनी छवि को नुकसान नहीं हो, इस बात की दुहाई देकर या अपने बच्चों के भविष्य की दुहाई देकर, अपनी पहली पत्नी का मुःह बन्द कर दिया जाता है, लेकिन भारत जैसे देश में औरतों की जो दशा है, उसमें ९५ प्रतिशत से अधिक औरतें तो इस हालत में होती ही नहीं कि वे कानून के समक्ष खड़ी होकर, अपने पति के विरुद्ध मुकदमा दायर कर सकें। जिसके पीछे एक ओर तो जहाँ आर्थिक कारण होते हैं, वहीं दूसरी ओर अनेक सामाजिक एवं धार्मिक कारण भी होते हैं। जिनके चलते एक-एक पाई को मोहताज रहने वाली और पति को परमेश्वर मानने वाली पत्नी, कानून के समक्ष गुहार करके अपने पति को कारावास में डलवाने के लिये कदम उठाने से पूर्व 10 बार नहीं, 100 बार सोचती है। पुरुष ने स्त्री की इसी कमजोरी का लाभ उठाकर ऐसा कानून बनाया, जिसमें दूसरे विवाह को कानूनी तौर पर अवैधानिक घोषित करके भी दूसरी पत्नी रखने का प्रावधान कर लिया। अन्यथा पुरुषों को, केवल पुरुष मानकर नहीं, बल्कि एक पुत्री के पिता, एक बहिन के भाई बनकर सोचना चाहिये कि जहाँ पूर्व पति या पूर्व पत्नी के रहते दूसरा विवाह करना कानूनी तौर पर निषिद्ध है और वहाँ इस कानून को तोड़नकर दूसरा विवाह रचाने वाले अपराधी को सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिये? ऐसे अपराधी को सजा देने के लिये कानून में किसी भी प्रकार के किन्तु, परन्तु को जगह क्यों दी गयी है?
यह लेख मियां बीबी राजी तो क्या करेगा काजी  पर लिखी गयी है
आप से अनुरोध है की आप अपनी राय मुझे मेल करे
मुझे आपके मेल का इंतजार रहेगा.


anil.manali@gmail.com

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