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चंद वाक़यात लिखने जा रहा हूँ... जो नारी जीवन के एक दुःख भरे पहलू से ताल्लुक़ रखते हैं.... हमारे मुल्क में ये प्रथा तो है ही,कि, ब्याह के बाद लडकी अपने माता-पिता का घर छोड़ 'पती'के घर या ससुराल में रहने जाती है...बचपन से उसपे संस्कार किए जाते हैं,कि, अब वही घर उसका है, उसकी अर्थी वहीँ से उठनी चाहिए..क्या 'वो घर 'उसका' होता है? क़ानूनन हो भी, लेकिन भावनात्मक तौर से, उसे ऐसा महसूस होता है? एक कोमल मानवी मन के पौधे को उसकी ज़मीन से उखाड़ किसी अन्य आँगन में लगाया जाता है...और अपेक्षा रहती है,लडकी के घर में आते ही, उसे अपने पीहर में मिले संस्कार या तौर तरीक़े भुला देने चाहियें..! क्या ऐसा मुमकिन हो सकता है? इस तरह एक नारी अपने जीवन मैं कितना परिवर्तन एक साथ देखती हैं। आज नारी समाज जागरूक है। फिर भी हम बदलाब को देख नहीं पा रहे । |
अगर बदलाव आ रहा है तो दिखता क्यों नहीं! यह केवल मेरा दृष्टि-दोष ही नहीं! जो मैं बदलाव को देख नहीं पा रहा हूँ । नारी की सामाजिक स्थिति पर लेखकों द्वारा रात-दिन लिख-लिखकर पन्ने काले करते रहना, और कभी नारी द्वारा मौके-बेमौके आंदोलन की धींगा-मुश्ती कर लेना, इससे भी बात न बने तो टेलीविजन पर कथित आधुनिक नारी को दिखाकर 'नारी की सामाजिक स्थिति में बदलाव आ रहा है' की ख़ुशफ़हमी दिमागों में पालकर खुद-ब-खुद प्रसन्न होते रहना। शायद यही बदलाव है।
इधर स्त्री-विमर्श वाले तो नारी को देह से विरक्त कर देखना-समझना ही नहीं चाहते। वे इसी बात से खुश और संतुष्ट हैं कि नारी की देह चर्चा में है।
इस मत-विमत में थोड़ी देर के लिए मैं नारी को देह से अलग कर उस नारी पर बात करना चाहता हूं जो कथित बदलाव से दूर ही नहीं, बहुत दूर है। सदियां बीत जाने के बावजूद मुझे भारतीय नारी आज भी दबी-कुचली, सहमी और पितृसत्तात्मक्ता की गुलाम नज़र आती है। उसका बजूद आज भी पिता, पति और सामाजिक परंपराओं की चारदीवारी में ही कैद है। पहले पिता का डंडा। फिर पति की हिटलरशाही ।
और इसके बाद समाज की कही-अनकही लानछने ।
इन सब से लुट-पीटकर उसका एक यातना गृह और है, वह है, नारी द्वारा नारी को ही दबाने-सताने की कोशिशें। बेशक, नारी पुरुष-सत्ता को नारी पर आत्याचार के लिए खूब कोस सकते हैं किसने रोका है। लेकिन नारी उस आत्याचार पर प्रायः चुप्पी लगा जाते हैं जो नारी द्वारा नारी पर ही किया-करवाया जाता है। हां, अगर कोई नारी अपने हित में आवाज़ उठती भी है तो यह कहकर उसे बैठा दिया जाता है कि अरे यह तुम क्या कह रही हो! नारी होकर नारी का अपमान करना चाहती हो,
शर्म आनी चाहिए तुम्हें।
नारी द्वारा नारी का उत्पीड़न आज हर घर, हर समाज, हर जाति की चिर-परिचित कहानी है। मगर जान-बूझकर नारी-समाज उससे परीचित नहीं होना चाहती । और पुरुष समाज को बदनाम करती है ।
जाने क्यों आवाज़ उठाने से डरती है? घर में मां की सख्ती। ससुराल में सास का कहर। समाज में एक-दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र। आज टीवी पर आने वाले सीरियल इसी 'तानाशाह नारी' को दिखा-दिखाकर पैसा भी बना रहे हैंऔर नारी समाज इन्ही सिरिअलो में अपना वक़्त बर्बाद कर रही है ।
कैसी बिडंवना है इस समाज की कि यह नारी को नारी के खिलाफ तो आराम से देख-सुन सकता है लेकिन समलैंगिक संबंधों की जहां बात आती है इसे अपनी सभ्यता-संस्कृति खतरे में पड़ती नज़र आने लगती है। समलैंगिक संबंधों का नाम सुनते ही इसे सांप-सा सूंघ जाता है। दीपा मेहता की (water) फिल्म पर मचा बवाल याद होगा ही आपको।
नारी पर चल रहे तमाम बदलावों के मद्देनज़र नारी के खिलाफ नारी के उत्पीड़न में अपने समाज और परिवारों में अभी तक कोई बदलाव नहीं आ सका है। मुझे इस बात की भी बेहद तकलीफ है कि अभी तक किसी भी महिला-ब्लॉगर ने इस मुद्दे पर न अपनी बात को रखा है और न ही किसी बहस का आयोजन किया है। जबकि यह महिला से ही से जुडा गंभीर मामला है।
पुरुष को गरियाना बेहद सरल है लेकिन एक दफा नारी को अपने उन आत्याचारों पर भी निगाह डालनी चाहिए जो वे अपनों के ही खिलाफ रचते या देखते-सुनते रहते हैं।
आज अगर महिला गाँव या किसी समूह में इकट्ठे हो तो हैं तो किसी न किसी बात में, कहीं न कहीं दूसरी महिला के खिलाफ ज़हर उगलने में सकुचाती नहीं। बुराई करने में उन्हें आनंद आता है। लेकिन इस आनंद को कभी न कभी बंद करना ही पड़ेगा। तब ही मुझे लगेगा कि बदलाव की असल बात तो अब शुरू हुई है।
देखते हैं, कितनी नारियां इस आत्याचार पर कितना और कहां तक पहल कर पाती हैं!
मुझे इस ब्लॉग में भी आपके राय का बेसब्री से इंतजार रहेगा ।
हलांकि ये संबाद है फिर भी आप से इस बिषय पर चर्चा करना चाहूँगा ।
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